Wednesday 7 December 2011

‘मर्दों की एक ही जाति होती है...’

अरविंद दास : बिहार में जन्मे अरविंद दास मीडिया रिसर्चर और पत्रकार हैं! दिल्ली केंद्रीय ठीकाना!
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक कविता की पंक्तियाँ हैं! बोल के लब आज़ाद हैं तेरे/ बोल जबां अब तक तेरी है...

मुझे यह कविता बेहद पसंद है! पर जब मैं अपने आस-पड़ोस और देश-दुनिया पर नज़र डालता हूँ तो वर्षों पहले लिखी ये पंक्तियाँ एक साथ कई अर्थ लेकर मेरे सामने प्रस्तुत होती है! इस कविता में एक ओर अपने समय का साक्षात्कार है तो दूसरी ओर सब कुछ कह देने का आवाह्न!

दक्षिण एशियाई समाज में हाशिए पर रहने वालों, विशेष कर स्त्रियों के लिए आजादी अब भी संविधान में लिखे ‘कुछ शब्द’ भर हैं! जबान हैं, पर कहने की आज़ादी कहाँ!

पिछले दशकों में मीडिया के मार्फत भारतीय समाज में अस्मिता विमर्श काफी सुनाई पड़ता रहा हैं! इस विमर्श में स्त्रियों के सशक्तीकरण, लैंगिक समानता की अनूगूंज हैं! पर यह विमर्श शहरी सार्वजनिक दुनिया (पब्लिक स्फ़ीयर) तक ही सीमित और सिमटी हुई दिखती है!

मिथिला के एक गाँव मैं मेरा बचपन बीता. उस सामंती समाज के ताने-बाने में स्त्रियों की दशा की ना तो कोई चिंता है और ना ही उसे तोड़ने की कोई पहल. गाँव छोड़ कर जो शहर आ गए और जिनके पास सांस्कृतिक पूंजी और साधन हैं, उनमें स्त्रियों के अधिकारों की चेतना आई है पर किस हद तक वह फलीभूत हो रहा है यह कहना मुश्किल है!

आजादी के 63 वर्षों के बाद भी उस समाज में सवर्ण स्त्रियों के लिए लैंगिक भेदभाव एक अभिशाप है, वहीं दलित स्त्रियों के लिए यह दोहरा अभिशाप!

मैं एक स्त्रीवादी (फेमेनिस्ट) हूँ और स्त्रियों पर होने वाली सभी प्रकार की हिंसा की घोर निंदा करता हूँ. पर जब मैं रोज़ स्त्रियों के साथ होने वाले हिंसा की खबरें देखता-पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ कि कहीं ना कहीं इसमें मेरी भी भागेदारी है!

‘भारतीय समाज भले ही कई जातियों में बँटा हो पर मर्दों की एक ही जाति होती है’, मेरी एक दोस्त कहा करती थी. वह ठीक ही कहती थी...

This Blog is part of the Men Say No Blogathon, encouraging men to take up action against the violence faced by women. More entries to the Blogathon can be read at www.mustbol.in/blogathon. Join further conversation on facebook.com/delhiyouth & twitter.com/mustbol

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